आपका स्‍वागत हैं आप पुस्तक धारा से जुड़ कर रचनात्माक सहयोग दे सकते है। आप समीक्षा मेल से भी भेज सकते हैं। MAIL पुस्तक धारा हि.प्र. PUSTAKDHARAHP [AT] GMAIL [DOT] COM .

10 March 2024

संवेदना, टीस और हौंसले का संगम...... अनकहे जज़्बात

March 10, 2024 0

 काव्य संग्रह   अनकहे जज़्बात - राजीव डोगरा  !   डॉनीरज पखरोलवी ! 

अनकहे जज़्बातराजीव डोगरा जी का प्रथम काव्य संग्रह है l इसमें कुल पचास कविताएं शामिल हैं l ये सभी कविताएँ विभिन्न विषयों के प्रति विभिन्न मनोभावों को अपने में समाहित किए हुए हैं । कवि के जीवन का एक-एक अनुभूत क्षण इन कविताओं में झलकता है l कविताओं की भाषा कलिष्ट  बोझिल नहीं, बल्कि सरल है, इतनी सरल है कि आम से लेकर खास तक किसी भी स्तर के पाठक को पढ़ने में कोई मुश्किल नहीं आएगी । कवि ने सीधे- सीधे आम बोलचाल की ज़ुबान में अपनी बात कह देने में महारत हासिल है l बिना किसी अतिरिक्त प्रयास या लाग लपेट के अपनी बात कह कर आगे निकल जाने का चमत्कार अनकहे जज़्बातमें यत्र तत्र सर्वत्र दिखाई देता है । यह काव्य संग्रह महक रहा है । पृष्ठ-पृष्ठ पर एक अनोखी सुगंध विद्यमान नज़र आती है l सुंदर शब्द पुष्पों से गुंफित हार है ...... अनकहे जज़्बात l

      इस काव्य संग्रह की शुरुआत श्री सिद्धिविनायक स्तुति से हुई है l “हे ! वाग्वादिनी माँ  कविता में माँ सरस्वती से ज्ञान और ध्यान की प्राप्ति की प्रार्थना की गई है । अविद्या से छूटकारा पाने और ज्ञान की प्राप्ति के लिए कवि आह्वान करता है कि -  

आकर हमें विद्या का वरदान दे

हे! वाग्वादिनी माँ

हे! वाग्वादिनी माँ

तू हमें ज्ञान दे

तू हमें ध्यान दे …”

 बेड़ी का दर्दनारी के अंतर्मन की पीड़ा व उसकी भावनात्मक स्थिति को व्यक्त करती एक बेहतरीन कविता है । अपनी इस कविता के माध्यम से कवि  कहता है कि किस्मत में जो बंधन हैं, वे हमें दूरी पार नहीं करने देते। जीवन की परिस्थितियाँ और किस्मत की बंदिशें हमें बांधित करती हैं । बेड़ी का दर्दकविता इसी चिंता को कुछ यूँ जाहिर कर रही है:-

कहीं  दूर गगन में निकल जाऊं

पर पड़ी पाँव में जो बरसों से

किस्मत की बेड़ी,

कैसे तोड़ इसे उड़ जाऊं  l”

इस काव्य संग्रह की दोस्तीकविता सन्देश देती है कि अच्छे दोस्त हमेशा दिल से और सच्चाई से दोस्ती निभाते रहते हैं । सच्चे दोस्तों को अपनी दोस्ती को जीवंत और मजबूत रखने के लिए हमेशा दिल से मिलना चाहिए और एक-दूसरे के साथ मस्ती करते रहना चाहिए:-

दोस्त  अपनी दोस्ती

दिल से  निभाते  रहना

कर-कर बातें मुझे

हमेशा हँसाते रहना..

कवि बचपन की नादानियों और मासूमियत को याद करता है और उसकी विहान खो जाने पर दुःखी होता है l वह उन सुंदर और मासूम पलों को याद कर रहा है, जो अब वहाँ नहीं हैं ,जहाँ बचपन गुजरा था:-

वो बचपन वो नादानियाँ

अब कहाँ  चली गई .. ?

घूमता फिरता  था जहाँ

वो हसीन वादियां भी

अब कहाँ  चली गई .. ?

मानवीय रिश्तों में विश्वास और समर्थन का होना बहुत महत्वपूर्ण होता है। इन रिश्तों में हम अपनी भावनाओं को साझा करते हैं, एक दूसरे के साथ जुड़े रहते हैं और समर्थन प्राप्त करते हैं। लेकिन दुःख  की बात यह है कि कई बार हमारे अपनों से धोखा मिल सकता है । "तेरा सहारा" कविता में अंतर्मन की इसी पीड़ा में कवि तन्हा चीखते हुए कह रहा है -

जब शहद से मीठे लोगों ने

बन विषधर मुझको डंसा

तो अपनों ने भी मुझसे

किनारा कर लिया….”

गुलाम आज़ादीकविता के माध्यम से  कवि हम भारतीयों की विघटनकारी मानसिकता पर  चोट करते हुए कहता है कि हम आज़ाद तो हो गए लेकिन अभी भी धर्म-जाति के मोहपाश से मुक्त नहीं हो पाए हैं l ऐसी आज़ादी किसी काम की नहीं । इस काव्य-संग्रह की चलना ही होगाकविता अंधेरे कोनों पर रोशनी डालती है । तृषाकविता में कवि गहरा संदेश देते हुए कहता है कि हमें अपनी भावनाओं और इच्छाओं को छिपाने की बजाय उन्हें समझने और साझा करने की जरूरत है । कवि ने अस्मिता की  तलाशकविता को संसार और समाज के प्रति अपने मन के गहरे प्रेम से रचा है । ज़िन्दगी  तेरा कोई पता नहींकविता जीवन की अनिश्चितता को व्यक्त करती है । मैं मुक्त हूँकविता हृदय की भावनाओं का सुंदर शब्दों में आकार लिए हुए है । कुछ अनकहाकविता में  एक अनकही खामोशी का जिक्र है,जो अंतर्मन में अपने अस्तित्व और पहचान की तलाश में बहुत चीखती है । अंतर्मन की पीड़ाकविता से ये ज़ाहिर हो जाता है की लफ़्ज़ों की जादूगिरी राजीव जी को आती है । नासूरकविता हृदय को बड़ी ही गहराई तक स्पर्श करती है । जीवन चक्रकविता में संवेदनात्मक धरातल पर जीवन का एक विस्तृत फ़लक उजागर होता है । नवीन जीवनकविता एक नई शुरुआत, एक नया जीवन और मानवता की सच्ची पहचान की खोज को उजागर करती है l "पिंजरे में बंद मानव" कविता अत्यंत गहरी और संवेदनशील भावनाओं को व्यक्त करती है। इस काव्य संग्रह की अन्य कविताओं जैसे कोई शिकवा नहीं, बेदर्द दुनिया, एक दर्द ,आज का आशिक, तेरा इंतजार, नई मोहब्बत, मेरा सफर, बदलता इश्क़ आदि सभी कविताओं में राजीव जी ने अपने जीवन के अनुभवों को उकेर दिया है l जीवन की सच्चाई और सरलता को उनकी कविताओं में महसूस किया जा सकता है ।अधिकतर कविताएं ऐसी हैं कि यदि उन्हें बार-बार पढ़ा जाए तो उनके नए-नए अर्थ खुलते जाते हैं ।

यह काव्य-संग्रह राजीव जी का पहला प्रयास है l इस संग्रह में बहुत सी रचनाएं उम्दा हुई हैं, जिनका कोई जवाब नहीं है । फिर भी, राजीव जी को साहित्यिक जगत में अगर एक विशेष स्थान हासिल करना है तो उन्हें अपनी ये साधना मुसलसल जारी रखनी होगी क्योंकि साहित्यिक जगत को राजीव जी से बहुत अपेक्षाएं हैं l कवि को भी इस बात का आभास है l तभी तो कवि कह रहा है :- 

आसमाँ को अपने हौसलों से,

थरथराना अभी बाकी है…..!

राजीव जी का सृजन-कर्म अनवरत आयुष्मती उपलब्धियों का वरण करे l मेरी हार्दिक शुभकामनाएं !                                   

डॉ. नीरज पखरोलवी

गॉंव:- पखरोल, डाकघर  सेरा, तहसील:- नादौन,

जिला  हमीरपुर  (हि. प्र.)-177038  

06 March 2024

पुस्तक 'लाडो' की समीक्षा

March 06, 2024 0
साझा काव्य संग्रह 'लाडो' की समीक्षा ।  समीक्षक प्रो रणजोध  सिंह। संपादन रौशन जसवाल।                 लाडो हमारे घरों की आन-बान और शान 


लाडो शब्द का ध्यान करने मात्र से ही हृदय रोमांचित हो जाता है| आंखों के सामने दौड़ने लगती हैं एक छोटी सी परी, अठखेलियाँ, शरारत या मान-मनुहार करती हुई, जिसकी हर क्रिया से केवल प्रेम झलकता है और जिसे इस जगत के लोग बेटी, परी, या लाडो कहकर पुकारते हैं| 
विवेच्य काव्य संग्रह लाडो विश्व की आधी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाली बेटी को ही समर्पित है| साहित्य जगत के उज्ज्वल नक्षत्र श्री रौशन जसवाल 'विक्षिप्त' जो हिमाचल प्रदेश उच्चतर शिक्षा विभाग से संयुक्त निदेशक के पद से सेवानिवृत हुए है, ने इस भाव युक्त कविता संग्रह लाडो का संपादन किया है| इससे पहले भी वे, 'अम्मा जो कहती थी,' 'पगडंडियां,' 'मां जो कहती थी' और 'प्रेम पथ के पथिक' नाम की साझा संग्रहों का संपादन कर चुके है| 160 पृष्ठों के कलेवर में देश भर के 31 कवियों की लगभग 90 कविताओं को इसमें शामिल किया गया है|
इस काव्य संग्रह की बड़ी विशेषता यह है कि साहित्य जगत के नामी-गिरामी साहित्यकारों साथ-साथ उभरते हुए लेखकों को भी स्थान दिया गया है| पुस्तक का आरंभ हिमाचल प्रदेश के वरिष्ठ व प्रसिद्ध साहित्यकारों डॉ. प्रेमलाल गौतम 'शिक्षार्थी,' डॉ. शंकर वासिष्ठ और श्री हरि सिंह तातेर की सारगर्भित टिप्पणियों से हुआ है, जिनमें वैदिक काल से लेकर आज तक नारी जीवन का समस्त इतिहास व गरिमा समाहित है| इस काव्य संग्रह को पढ़कर कहना पड़ेगा कि बेटियां हमारे घरों की आन-बान और शान हैं| बेटियां हैं तो घर, परिवार और समाज है अन्यथा सब कुछ अधुरा है| आज की बेटी ने अपने को हर क्षेत्र में साबित किया है| अनिल शर्मा नील ने इसी बात का अनुमोदन करते हुए लिखा है:
गृहस्थी हो या फिर हो कार्यालय/ अपनी कुशलता से चमकया नाम है|/ नभ जल थल में लोहा मनवाया है/ लहरा के तिरंगा देश का बढ़ाया मान है|
बेटी तो एक ऐसा पारस है जो लोहे को भी चंदन बना देती है वह जिस जगह पर भी अपने कदम रखती है, वह जगह स्वर्ग सी सुंदर बन जाती है| वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. अशोक विश्वामित्र की इन पंक्तियां पर गोर फरमाएं: 
प्रीति, आस्तिकता सुरुचि, शुचिता, सुमति अमृत कनी,/ भाव निर्झरणी बही और एक हो बेटी बनी|/ पुष्प सी सुरभित, सुकोमल,/ स्नेह स्निग्धा त्याग और तप की धनी,/ भावना के गुच्छ ये सब एक हो बेटी बनी|
युवा कवि अतुल कुमार लिखते हैं: 
मुझे घमंड है/ मैंने एक बेटी को है पाया,/ पिता होने का सम्मान/ उसी ने मुझे दिलाया|
वरिष्ठ साहित्यकार एवं संस्कृत भाषा के विशारद डॉ. प्रेमलाल गौतम 'शिक्षार्थी' ने नारी को नवदुर्गा का रूप मानते हुए दो कुलों का प्रकाश लिखा है:
नवदुर्गा का प्रतीक आद्या/ दो कुलों का दीप आद्या| 
अपनी एक अन्य कविता 'सुकन्या' में उन्होंने नारी को सृष्टि की परम शक्ति बताते हुए देवी के नौ रूपों का बड़ा ही सुरुचि पूर्ण वर्णन किया है: 
'शैलपुत्री' आरोग्य दायिनी 'ब्रह्मचारिणी' सौभाग्य प्रदा, 
'चन्द्रघंटा' साहस सौम्यदा, मध्य कुष्मांडा करे धी विकास सदा| 
'स्कंदमाता' सुखशांति, कष्ट निवारणी 'कात्यानी' 
विकराल काल हरे 'कालरात्रि' 'महागौरी' पुण्यदायिनी| 
'सिद्धिदात्री' यह नवमी शक्ति, करती पूर्ण हर मनोकामना
नवदुर्गा आशीष साथ हो, नहीं होता भवरोग सामना|
वरिष्ठ साहित्यकार और यायावर श्री रत्नचंद निर्झर को लगता है कि बेटियां कभी मायके से जुदा नहीं होती: इसीलिए वह कहते हैं: 
मां ने अभी सहेज कर रखें/ बचपन के परिधान, गुड्डे गुडियां/ और ढेर सारे खिलौने/ बेटी की अनुपस्थिति में/ बतियाएगी उनके संग/ और करेगी उनसे/ बेटी जानकर एकालाप
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. शंकर लाल वासिष्ठ ने उसे घर को सौभाग्यशाली कहा है जहां पर बेटी जन्म लेती है| बेटी सिर्फ पति के घर की शोभा नहीं अपितु वह अपना मायका भी अच्छे से संभालती है| उनकी एक कविता का अंश:
मायके की गरिमा तू/ ससुराल की अस्मिता है बेटी/ विचरती दो परिवारों में/ मान मर्यादा बनती है बेटी/ संभालती विचारती मुदितमना/ कर्तव्य निभाती है बेटी/ पावन, निष्कपट स्वाभिमान दो कुलों का है बेटी|
ये हमारे समाज की कितनी बड़ी बिडम्बना है कि एक तरफ तो हम बेटियों को देवी का दर्जा देते हैं मगर फिर भी हम उन्हें वो स्थान और वो सम्मान नहीं दे पायें हैं जिसकी वे हकदार हैं| लगभग प्रत्येक कवि ने बेटियों की वर्तमान स्तिथि पर चिंता व्यक्त की है| कन्या भ्रूण हत्या पर अपने भाव प्रकट करते हुए डॉ. कौशल्या ठाकुर कहती है:
चलाओ न निहत्थी पर हथियार/ लेने दो इसको गर्भनाल से पोषाहार| 
होने दो अंग प्रत्यंग विकसित,/ निद्रित कली को खोलने दो लोचन द्वार|
वरिष्ठ लेखक श्री हितेंद्र शर्मा ने अपने भाव कुछ इस तरह व्यक्त किये हैं: 
दहलीज लांघने से डरती है बेटियां/ पिया की प्रिया सखी बनती है बेटियां 
मां-बाप की तो सांसों की जान है बेटियां/ बाबुल की ऊंची पगड़ी की शान बेटियां 
खाली कानून बनाने से या बेटी के पक्ष में नारे लगाने से बात नहीं बनने वाली| निताली चित्रवंशी की कलम देखिए:
कानून बनने बदलने से/ सरकारों के आने जाने से/ उनकी बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियानों से कहाँ बच पा रही हैं बेटियां|   
यूं तो नारी के तीन रूपों की कल्पना की गई है लक्ष्मी, दुर्गा (शक्ति) और सरस्वती| मगर हमने नारी को सिर्फ पहले यानि लक्ष्मी रूप तक ही सीमित कर दिया है| चर्चित साहित्यकार डॉ. नरेंद्र शर्मा की पंक्तियां इसी बात का खुलासा कर रही हैं:
पुरुष प्रधान पितृसत्तात्मक समाज/ आदि शक्ति के/ तीन रूपों/आयामों/ लक्ष्मी, शक्ति और सरस्वती में से/ बेटियों को केवल/ घर की लक्ष्मी तक ही/ सीमित रखता है|
भारतीय समाज बेटियों को लेकर सदैव दोहरी मानसिकता रखता है| इस मर्म को समझा है युवा कवि राजीव डोगरा ने: 
हां मैं एक लड़की हूँ/ हां मैं वो ही लड़की हूँ/ जो अपनी हो तो/ चार दीवारी में कैद रखते हो|/ किसी और की हो तो/ चार दीवारी में भी/ नजरे गड़ाए रखते हो|
भारत, जिसे विश्वगुरु की संज्ञा दी जाती है, में आज कितना बुरा समय आ गया है कि आज की तिथि में बेटी का पिता होना एक खुशी की बात नहीं अपितु चिंता का विषय बन गया है| युवा कलमकार रविंद्र दत्त जोशी लिखते हैं:
हर पल चिंता की चिता में जीता हूँ
जी हाँ मैं भी एक बेटी का पिता हूँ| 
वरिष्ठ साहित्यकार एवं सेवा निवृत पुलिस अधीक्षक श्री सतीश रत्न अपनी चिंता व्यक्त करते हुये सवाल उठाते है कि बेटी को देवी का दर्जा देने वाले लोग असल जीवन में बिलकुल इसके विपरीत है| क्या हम उन्हें इतनी भी स्वंत्रता नहीं दे सकते कि वे निर्भय होकर घर से बाहर जा सके? उनकी एक कविता की बानगी देखिए:
बेटी, बाहर आदमी होंगे/ ज़रा संभल के जाना/ और हां/ दिन छिपने से पहले/ घर आ जाना!!
वही नीना शर्मा बेटियों का संरक्षण व संबल बनाने की बात करती हैं: 
बेटियां देश का भविष्य होती है अच्छे समाज का भार ढोती है/ परी बनाकर उन्हें नाजुक न बनाओ|
उधर देव दत्त शर्मा ने बेटियों को स्पष्ट हिदायत दी है कि अब रावण का अंत करने के लिए राम का इंतज़ार नहीं करना चाहिए| समय आ गया है जब उन्हें स्वयंसिद्धा होकर रावण का सामना करना होगा:
अब खुद ही सुताओं को प्रचंड धनुष उठाना होगा/ छोड़ लाज शर्म खुद को ही अब राम बनाना होगा|/ पहले भी लड़ी थी सती बनाकर यमराज से तू/ फिर तुझे ही अब धनुष संधान से रावण मिटाना होगा||
साहित्यकार श्री उदय वीर भरद्वाज पूरी पुस्तक में अकेले एक ऐसे कवि है जिन्होंने बेटी के सुखी वैवाहिक जीवन हेतु उसे नसीहत की कड़वी मगर सच्ची घुटी पिलाई है| उनकी निम्न पंक्तियों का विचारणीय हैं : काश/ लालच छोड़ सीखती संस्कार/ करती न अंतर/ मां-बाप सास ससुर में/ एक सा मानती/ मायका और ससुराल/ बेटी बेटी होती/ वृद्ध आश्रम न होते/ बेटी आदर्श
बहू होती/ बूढ़े मां-बाप/ स्वर्ग सुख भोगते/ बना रहता भाई बहनों में प्यार/ स्वर्ग से सुंदर होता संसार|
कुल मिलाकर इस कविता संग्रह में बेटी से संबंधित कोई ऐसा पहलू नहीं है जिस पर चर्चा नहीं की गई हो| संग्रह की अंतिम कविता 'बेटियां कभी उदास नहीं होती' इस संग्रह के संपादक श्री रौशन जसवाल 'विक्षिप्त' द्वारा लिखी गई है जिससे उन्होंने स्वयं भी यह स्वीकार किया है कि आज की परिस्थितियों में बेटियां सुरक्षित नहीं है| लेकिन वे आशावान है कि एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब यह संसार बेटियों की शक्ति को पहचानेगा और वे स्वतंत्रता व सम्मानपूर्वक अपना जीवन-यापन कर सकेगीं| 
एक ही विषय पर भिन्न कवियों पढ़ना न केवल मन को रोमांचित करता है अपितु उस विषय से संबंधित हर पहलू का सूक्ष्म विश्लेषण भी सहज ही हो जाता है| इस दृष्टि से लाडो एक सफल पुस्तक है और संग्रह करने योग्य हैं| मुझे पूर्ण विश्वास है कि कोई भी व्यक्ति जो इस संग्रह को दिल से पड़ेगा, बेटियों के प्रति निश्चित ही उसकी सोच बदलेगी और वह बेटी के सपनों में कभी बाधक नहीं बनेगा| मुख्य संपादक श्री जसवाल व उनकी संपादकीय टीम और संकलित लेखकों को बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं| 

पुस्तक का नाम – लाडो कविताएं (साझा कविता-संग्रह) 
सम्पादक और प्रकाशक – रौशन जसवाल 'विक्षिप्त'
 300/- 
समीक्षक - रणजोध सिंह

29 February 2024

"सूत्रधर" कविता संकलन

February 29, 2024 0
सूत्रधर    ओड़िया      कविता संकलन *   अनुवाद    पारमिता षड़ंगी         *      समीक्षा ईप्सिता षड़ंगी *  
 “सूत्रधर” पिताजी कवि डॉ. बंशीघर षड़ंगी की नवम कविता संकलन है।“सूत्रधर” के नाम करण से स्वत: भरत मुनि के नाट्यशास्त्र की याद आती है। भरत मुनि ने “नाट्य शास्त्र” के पैंतीसवें अध्याय में “सूत्रधर” का उल्लेख किया है। यह “सूत्रधर” नाटक अथवा “लोकबृत्ति” के निर्देशक है । “लोकबृत्ति” को भरत मुनि ने मनुष्य के जीवनचर्या की कलात्मक अनुकरण के रूप में दर्शाया है। “सूत्रधर” एक ऐसे ज्ञानदीप्त मनुष्य है जो मंच परिचालन के साथ साथ वाद्ययंत्र, गीत आदि में विशेष ज्ञान का अधिकारी हैं। और जब जीवनरूपी नाटक की बात आती है तो “सूत्रधर” वह है जो सबके जीवन के सूत्र को अपने हाथों में धारण करके उसे कठपुतली की तरह  नचाते हैं। यहाँ पिताजी के संकलन में “सूत्रधर” अदृश्य, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, परम दयालु भगवान की ओर संकेत कर रहा है। जो अपने नाटक में स्वयं ही सब कुछ है। वो सभी नियमों से ऊर्ध्व में है। किसी भी समय वह “रंग शीर्ष”(मंच) पर आ सकते है अथवा चाहे तो “अंगशीर्ष”( नेपथ्य गृह) में रह कर अपनी मर्जी से निर्देश दे सकते हैं। पिताजी के शब्द में –
  “सूत्रधर, तुम्हारे अभिधान में/ शब्दों के स्वतंत्र अर्थ होते है /उनके पास जाना या /निकटतर होना / हमारे लिए आसान नहीं है” [सूत्रधर (३)]
    उनके लिए कौन सा रास्ता निर्दिष्ट नहीं है। वह व्याकरण के राह पर चलकर प्रणव तक जा सकते हैं या इसके विपरित उनको ही मालूम । सत्यवती के साथ पराशर के संबंध से, व्यास के जन्म के माध्यम से ज्ञान का मार्ग हो अथवा बिना तत्व ज्ञान की शबरी का भक्ति का मार्ग हो, या कोई भी कवि, जो सब कुछ छोड़कर, खुद को ऊर्ध्व में उठाए उनके सामने समर्पण कर दें, हजारों दिशाओं में हजारों प्रकाश पुंज भेजना ,यह सबकुछ करने में समर्थ है वह “सूत्रधर”। सभी कला, सभी कविता, सभी कथ्य, अणकथ्य ,गम्य अगम्य के ऊर्ध्व में है ,यह “सूत्रधर” [ जो सारे नाट के गोवर्धन (फ़साद की जड़ )] के उपर पाँच कविताएँ और “शेष दृश्य” (1),(2) में  पिताजी इस महान नाटककार का वर्णन करते हुए लिखते हैं –
   (1)हमारे नाट्यकारों के ऊर्ध्व में / और एक नाट्यकार है /उसके नाटक में अजीब घटनाएँ घटती है /आवर्त्तक, संवर्त्तक, द्रोण और पुष्कर आदि,/ चतुर्मेघ  इकट्ठे बारिश करें तो भी/
पृथ्वी पर सूखा पड़ जाता है /शून्य महाशून्य में अपने आप मंदिर गढ़ जाता है /मगर उस मंदिर का /प्रवेश द्वार नहीं होता है।“ ( शेष दृश्य 1)
  (2) “नाविक हो या बरगद का पेड़/ या बेचारी राजकुमारी /किसी भी बात को हम /नाटक का आखिरी दृश्य है, ऐसा बोल नहीं सकते  ×××××/ सचराचर / अंतिम दृश्य जैसा /कुछ नहीं है। (शेष दृश्य 2)
      सिर्फ संकलन के नामकरण में ही नहीं, पिताजी की कविता प्राच्य काव्यतत्व और प्राच्य दर्शन का मंत्र पाठ करती हैं जो उनके काव्य दर्शन की वैशिष्ट्य हैं। उनके काव्य में अनेक छोटी-छोटी घटनाओं के अवतरण ऐसे हुए हैं, जो जीवन के बृहत्तर अर्थ की अन्वेषण की महान परम्परा को उज्जीवित कराती हैं। स्थान, काल, पात्र के बावजूद उनकी कविता जीवन की जिज्ञासाओं को व्यंजना करती है।
     संग्रह की कविताएँ मुख्य रूप से शून्यता में पूर्णता का अनुभव, निरवता तपस्या में , ध्यान के मार्ग से गूढ़ दर्शन को शब्दों में मूर्त्त करने का प्रयास करता है। और इतनी लाचारी के बीच काले अंधेरे में ईश्वर की उपस्थिति की उपलब्धि को साक्षात कराते हैं। यह सच है कि जीवन और जगत नश्वर  है, लेकिन कव्य-भाषा की चलत्-शक्ति तथा अनेक आख्यान के आगमन में वही नश्वरता, अलग राह पर चलते हुए एक अद्भुत लोक में ले जाती है, जहाँ सभी पीड़ाओं का एक ही उपसम है, सभी वियोगों के लिए मिलन की संभावना है। इस संभावनाओं का ऐश्वर्य ही पिताजी के काव्य की अनूठी विशेषता है। जैसे :-
    (1)”हमेशा कुछ कुछ बातों का समाधान में  देर होता है / कभी कभी अचानक राह / दिख जाती है कि/××××× आकस्मिकता हमेशा गुप्त में रहती है…(आने का वक्त)
    (2) मेरे पास आने वाला बुलवा / सीधा आ रहा है कि छद्म वेश में / एक वाक्य लिखते वक्त / बार-बार वही स्वर रोकने लगा है ××××मेरे नीरव मुहूर्त में / कोलाहल भरने के लिए” (कोलाहल )
   (3) साया के जैसा अनेकों बातों के / औद्धत्य को सहना पड़ता है / कभी कभी सुबह की हवा की /दुलारना में जीवन के उपर / यकीन आ जाता है / भरोसा आ जाता है ( राहगीर)
      ऐसी कई कविताएँ हैं जिनमें  भाषा खूब साधारण, परिचित और आत्मीय है। लेकिन भाव की गंभीरता शब्दों के माध्यम से जीवन की सच्चाई को व्यक्त करती है। चाहे वह उपमा हो या बिम्ब,  वहाँ  Allusion अथवा संकेत हो या न हो, एक परिचित जीवन-दृश्य संचरित होता है। जैसे:- 
    (1)पहाड़ के चारों तरफ से / साँप के तरह लपेटे हुए / उपर जाता है रास्ता / ऐसा लगता है मुझे / फिर से समुद्र मंथन के / तैयारी चल रही है शायद ,[नाव (1)]
     (2) “सूखा पहाड़ के उपर / चंद्र सूर्य अपने अपने वक्त पर / आराम से बैठ जाते हैं / और कभी कभी शाम को भी / लालटेन जला कर बातें करते “(पहड़)
     (3)“सूर्य के अस्त होते ही / सिंदुर दानी जैसी / बादल के डिब्बे से निकल आएगा चाँद / फिर धीरे धीरे सुहागिन की मांग से/ विधवा की सफेद साड़ी में / बदल जाएगा / अब लालटेन को धीमा करना पडेगा।“
[परिधि (१)]
    (4)“ओस में भीग कर हवा / जब पत्ते पर बैठ गया तो / कांप गया उसका पूरा बदन /जिंदगी है तो धूप बारिश सब / सहने के अलावा और कोई चारा नहीं,(जुहार)
       कई जाने-पहचाने चित्रों में पहली तीन पंक्तियों में अनेक अनुपम दृश्य हैं । चौथी पंक्ति में जीवन जैसा दृश्य वास्तविकता को बयान करती है। जीवन , अकेलेपन  और इस अकेलेपन से खुद के लिए, समाज के लिए एक महार्घ अनुभव को लेकर रचित इन कविताओं को यह संकलन धारण किया है।  इन कविताओं के शब्द सारे कम  चौंकाने वाले हैं मगर भाव के गहराइयों में ले जाने के लिए सदा जाग्रत है ।   
    पिताजी के अन्य कविता संकलन के तरह ,यह संकलन भी एक नई दिशा के तरफ संकेत कर , नया दृष्टिकोण के आलोक प्रदान करता है, जिसके जड़ ओड़िआ साहित्य की मूल परंपरा के साथ जुड़ा हुआ है। इन कविताओं में गोरख संहिता से लेकर बलराम दास के भजन , ”भाव समुद्र “जगन्नाथ दास के “भागवत”,”भजन”, शिशु अनंत दास के ”ज्ञान घर भजन”
, यशवंत दास के “भजन” , दैवज्ञ बिप्र के “टीका गोविंद चंद्र “,सालवेग के भजन , भक्त चरण दास के “मनबोध चउतिशा “, राधानाथ के “ चिलिका “ आदि अनेक कविताओं की प्रसंग और गूढ़ चेतना उल्लेख किया गया है। उनके कविताएं हमारे साहित्य की जड़ के साथ संयोजित होने के साथ साथ सांप्रतिक समय खंड को, एक अलग ढंग से प्रसारित करते हैं। साधारणतः कवि भीतर से बाहर के तरफ़ गमन करते हैं,मगर पिताजी  के कविताएं बाहर से भीतर के तरफ़ गति करते हुए अंत:स्थल को आलोकित करती है। इसलिए उनके कविताएं गभीर अनुभूति को ग्रहण करती है । इन कविताओं के शरीर मूलतः प्रकृति से संगठित अथवा निर्मित, जिसमें मानवीय द्वंद्व, ऋतुओं की तरह प्रज्वलित और निर्वापित होते रहते हैं एवं समस्त आवरण को छेद कर हरे पत्ते जैसे आस्था को उपर ले आते हैं। पिताजी इन कविताओं में बार-बार जिन स्मृतियों कि जंजीर में जकड़ जातें हैं, वह है बचपन के खेलकूद से , अचानक वर्तमान को संयोजित कर के । चेतना की धारा ( Stream of consciousness ) की यह तकनीक ओड़िआ कविता क्षेत्र में एक नूतन परिक्षण है, मुझे ऐसा लगता है। ऐसे ही कुछ पंक्तियों के उदाहरण है -:
(1) “चाँद उतर रहा है सागौन के पत्ते से/ केले के पत्तों को / वहीं से बिखर रहा है / उसी वक्त सारे बगीचे में  / नदी जैसी एक टुकड़ा आसमान में / वहीं चांद कश्ती बन तैर रही है / द्वैत भूमिका में  ×××××× हमें भी कोई / ऐसे ही कुछ / राह दिखा देते तो / हम अवतीर्ण हो सकते / सिर्फ द्वैत  नहीं / कई भूमिकाओं में” (भूमिका-1)
(2) “ वर्षा होने पर / आसमान में लकीरें खींच जाती / साफ़ दिखाई नहीं देता / पास में खड़े आदमी का चेहरा / ठीक उसी वक्त / अबोलकरा पंडित से प्रश्न करता है / चेहरा क्यों साफ़ दिखाई नहीं देता / बहुत दिनों से यही अबोलकरा / सिर्फ पंडित के पास नहीं / हमारे पास भी आ रहा है / शायद वह कोई और नहीं / हम खुद / तो फिर पंडित / पंडित भी हम ही हैं / हमेशा हम ही तो है यही / दोनों भुमिकाओं में” (भूमिका (2)
(3) “ दादाजी जाने के बाद पन-बट्टा खाली / ×××××× किसके आने के आहट पास होता जा रहा है /तब से चारों तरफ सन्नाटा / सच झूठ सचमुच आपेक्षिक” (सचझूठ)
(4) “ आकाश और पृथ्वी की / मिलने वाली जगह को / दिगंत कहते हैं / मगर दिग का क्या / कोई अंत होता है / उधर देखें तो सबकुछ / धुंधला सा दिखता है / ठीक हमारे जंजाल से भरा जीवन जैसा “(स्तुति)
   इस संकलन में अनेक कविताओं में सृजन रहस्य को लेकर कवि के जिज्ञासा दिखाई देता है। रहस्य के अंधकार में प्रवेश और उसके तत्व-भेद करने की निष्ठा अनेकों कविताओं में द्रष्टव्य । जैसे -: 
(1) “कभी कभी शब्दों के नदी में / बह जाता है कवि तो / कभी डूबते हुए शब्दों के समुद्र में / मगर किसी के पास तो सीढ़ी नहीं है / वोही शब्दों के कन्धों का / सहारा ले कर / कवि को तो उपर उठना पडेगा” (जन्मांतर)
(2) “काश ! हमे कोई बता देता /पहले से जानने के राह / आखिरकार कैसे कविता लिखना है / कौनसी साधना में चलते / हम पहूँच सकते अपने लक्ष्यस्थान में / सचमुच उस राह में चलना / क्या धारी तलवार पर चलने जैसा”
( कविता खाता)
(3) अक्षर को सजाकर कौन बिठाएगा / सच्चाई को बयाँ करना किसके जिम्मेदारी / वह तो भोग खा कर सो रहा है / उसका पहड़ उठाएगा कौन ?”(पहड़ )
(4) “कौन सी मुद्रा में आराधना करने से / ईश्वर संतुष्ट होते होंगे / पता लगाना पड़ेगा / कौन से शब्दों के अर्थों के ऊर्ध्व ध्वनि / और उससे ऊर्ध्व मंत्र के स्तर को / जानने के लिए / उनको आवाहन करना होगा” (प्रार्थना)
   इस संकलन में पैंसठ कविताएं हैं। शुरू “ बिनराह “ से हुई है और आखिरी कविता “हाट” है ।
      “शेष दृश्य (2)” में पिताजी कहा है कि, “हर बातों का शुरुआत तो है / शायद आखि़र नहीं / हमारे आँखो को जो अंतिम / दिखाई देता है / वास्तव में वह अंत नहीं / आगे और भी आगे कई सारे बातें / छुपी हुई होती है ×××× हमारे आँखो को अंतिम पड़ाव जैसा / दिखाई देते हुए भी / सचमुच वह अंत नहीं होता है / सचराचर / अंतिम दृश्य जैसा / कुछ नहीं है।“ – इसलिए शेष न होने वाला प्रक्रिया का विराम कहाँ है ?
    अपनी भाव के लिए शब्द ढूंढने वाले कवि हमेशा बेबस होतें है। एक उम्रदराज कवि को भी शब्दों को, अपने भाव के साथ जुगलबंदी कराने के लिए तपस्या करनी पड़ती है । ऐसे ही अनेक भावओं को लेकर यह संकलन समृद्ध। जैसे कहा गया है -: “कभी कभी अपने शव को / लहू के नदी में बहना पड़ता है / एक शब्द के लिए एक अर्थ के लिए / असहाय अवस्था को सामना करना पड़ता है /  तभी शायद कोई मिल जाए / जो लिखवा दे / आपने आप को / हो सके एक माध्यम जैसे / अपनाया जा सकता है / किसी एक कवि को” (बूढा होने के बाद)
      सारे कवियों को एक माध्यम के रूप में ग्रहण कर के समय के श्यामपट्ट (ब्लैकबोर्ड) में खुद को लेखक जाहिर करने वाला लीलामय “सूत्रधर” , सभी कवियों के परीक्षा लेते रहते हैं।
   “ सूत्रधर” संकलन पाठकों के द्वारा खूब आदृत हो।

"सम्बित के पास जब मैं नहीं थी" (कहानी संग्रह)

February 29, 2024 0

 *  पुस्तक समीक्षा    "सम्बित के पास जब मैं नहीं थी"    (कहानी संग्रह)  *  पारमिता  षडंगीं‌   

समीक्षा *   प्रदीप बिहारी    बेगूसराय (बिहार)  * 

संवेदना को छूती कहानियां


पारमिता षडंगीं‌ की मातृभाषा ओड़िआ है। वह ओडिआ के अतिरिक्त हिंदी भी जानती हैं। हिंदी भी उतना ही जानती है, जितना ओड़िआ । मतलब, ओड़िआ और हिंदी पर समान अधिकार रखती हैं। दोनों भाषाओं के गद्य-पद्य में रचनाशील हैं। साथ ही, एक सजग अनुवादक भी हैं।
उनकी तेरह मौलिक हिंदी कहानियों का यह संग्रह पाठकों के समक्ष आ रहा है, जो एक सुखद बात है। इस संग्रह में संग्रहित कहानियाँ पाठकों के ईर्द-गिर्द की कहानी लग सकती है और इसी कारण पाठकों की प्रिय कहानियाँ भी बन सकती हैं। इन कहानियों की प्रस्तुति में यह दम दिखता है।
         कहानी में कथावस्तु की नवीनता और विश्वसनीयता के साथ-साथ कहानी कहने का ढंग भी महत्वपूर्ण होता है। कुछ बातें यथा, कहानी में वर्णित परिवेश, कहानी की भाषा, कथ्य के अनुसार परिवेश एवं कथा-पात्रों का चयन एवं प्रतिस्थापन आदि पर लेखक जितना अधिक काम करता है, कहानी उतनी विश्वसनीय बन पाती है। इस संग्रह की कहानियों से गुजरते हुए कहानियों की विश्वसनीयता पर आपको किसी प्रकार का शक नहीं होगा।
          इस संग्रह की कहानियों में, जैसा मैंने ऊपर कहा है कि पाठकों के ईर्द-गिर्द की कथावस्तु को प्रस्तुत किया गया है। ये कहानियाँ जीवन के यथार्थ का बखान करती हैं, और इतनी सहजता से बखान करती हैं कि पाठकों के मन में अपनी जगह बना लेती हैं। पाठकों को लगता है कि ये उनकी ही कहानी है, मात्र उन्हीं की। जो कहानियाँ पाठकों के मन में यह बोध उत्पन्न कर देती हैं, सफल कहानियों की श्रेणी में होती हैं। यह बोध उत्पन्न करने में इस संग्रह की कहानियाँ भी सफल हुई हैं।
            कहानियों में विभिन्न विमर्शों की बात का चलन भी पिछले कुछ दशकों से चर्चा में रहा है। इस दृष्टिकोण से अगर देखा जाय तो इस संग्रह में स्त्री और वृद्ध विमर्श की कहानियाँ आनुपातिक रूप में अधिक हैं। यह सत्य है कि आज के समाज में स्त्री और वृद्धों को अपेक्षित सम्मान नहीं मिल पा रहा है। ऐसी स्थिति में एक सजग लेखक का दायित्व बन जाता है कि उनके जीवन के राग-विराग को अपनी कहानियों का विषय बनाएं।
          इस संग्रह की एक कहानी ‘नीड़’ की चर्चा करना चाहूंगा कि इस कहानी का पारायण करते हुए आप पाएंगे कि यह कहानी कई विमर्शों का संगम है। स्त्री और वृद्ध विमर्श के साथ-साथ यह कहानी पर्यावरण विमर्श के लिए भी आमंत्रित करती है। छल-कपट, धूर्तता और अर्थ के बल पर किए जा रहे अत्याचार को भी इस कहानी में दर्शाया गया है। इस कहानी की शिल्पगत खासियत यह है कि पूरी कहानी का सूत्रधार पेड़ पर रह रहे तोता-मैना को बनाया गया है। पक्षियों के माध्यम से आदमी की व्यथा-कथा और संवेदना को इस कहानी में उकेर कर पारमिता ने अभिनव कार्य किया है।
          इसी तरह ‘निःसंगता के स्वर’ कहानी में भी एक सेना के अवकाशप्राप्त, पर विधुर अधिकारी की व्यथा कही गई है, जिसके बच्चे विदेश में रहते हैं और मूल घर को प्लेटफॉर्म की तरह समझना भी भूल गए हैं। उस अधिकारी के घर में चोर घुस गया है। दोनों में संवाद होता है। सिर्फ दो पात्रों की इस कहानी का ट्रीटमेंट पाठक को बखूबी बांधता है। यह कहानी तो पढ़ते ही बनती है।
           इस संग्रह में एक कहानी मिलेगी –‘संबित मिश्र के पास जब मैं ‌नहीं थी’। यह विशुद्ध प्रेमकथा है। क्लासरूम, हॉस्टल और कैरियर से गुजरते हुए यह कहानी पाठकों को शाश्वत प्रेम का दिग्दर्शन करा‌ सकती है।
          इस संग्रह में संग्रहित पारमिता जी की कहानियां ग्रामीण और नागर बोध की हैं। मेरी यह बात कहानियों को पढ़ने के बाद आपको थोड़ा अटपटा लग सकती है, कारण पूरे गांव की कहानी प्रायः आपको नहीं दिख सकती है। पर, पारमिता के लेखन का कौशल कह लें या परिपक्वता, नागर बोध की कहानियों में वह ग्रामीण परिवेश को कुशलता से समेट लेती है। और इस संग्रह की कुछ कहानियों में आप पारमिता षड़ंगी के इस कौशल को देख पाएंगे।
         आज के विषम बुद्धि विरोधी माहौल में अगर किसी चीज का क्षरण हो रहा है, तो वह है- संवेदना। संवेदना का क्षरण ही मानवीय मूल्यबोध को हाशिए से भी हटाने पर तुला है। ऐसे समय में संवेदना और मानवता को बचाए रखने का संघर्ष एक सजग लेखक का दायित्व बन जाता है। उपरोक्त कहानियों के साथ पारमिता षडंगी ने अपनी अन्य कहानियाँ यथा- ‘शून्य ईलाका’, ‘मकड़ी का जाल’, ‘काल्पनिक’, ‘पत्थर में बदलनेवाली’, ‘वो, मैं और दो घंटो का आलाप’, ‘मां, बीनू और बिल्ली’, ‘हमसफर’,‘खजाना’, ‘अनदेखा घाव’ कहानियों के माध्यम से संवेदना और मानवता को बचाए रखने के संघर्ष में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज किया है। लगे हाथ यह भी बता दूं कि इन कहानियों के शिल्प भी आपको परम्परागत शिल्पों से अलग लगेगी ।
      मैं पारमिता षड़ंगी का अभिनन्दन करता हूँ। साथ ही, शुभकामनाएँ भी देता हूँ। इन कहानियों को पढ़ने के बाद तय है कि पाठकों को उनके कथाकार से उम्मीदें बढ़ जाएंगी। पर, मैं आश्वस्त हूँ कि पारमिता‌ पाठकों के उम्मीद पर खड़ी उतरेंगी।
    शुभकामनाओं के साथ।
   प्रदीप बिहारी 
 बेगूसराय (बिहार)

***

25 February 2024

इस आदमी को बचाओ"

February 25, 2024 0

फेसबुक पर अशोक कुमार जी टिपण्णी 

_________________



प्रिय कवि अजेय के इस संग्रह "इस आदमी को बचाओ" को आधार प्रकाशन से छपकर आये हुए लगभग एक वर्ष का समय होने को है।

कवि अजेय पर्वतीय संवेदनाओं के कवि हैं किंतु उनकी कविताओं में लाहुल का लोक ऐसे ही नहीं आता; वह आता है तीखे सवालों के साथ। उनकी कविताओं में पहाड़ सांस लेते हैं किंतु अंधुनिकता के अंधानुकरण के सामने तनकर खड़े होकर। नदिया बहती हैं; झरने गाते है किंतु अजेय की कविताएं उनके गान में बसी उन अव्यक्त पीड़ाओं को स्वर देती हैं जिन्हें आधुनिक होने के क्रम में हाशिए पर धकेल कर अनसुना करने की साजिशें रचने में लगे हैं पूंजी के पहरुए।

रोहतांग टनल बनते हुए कुछ चिंताएं यूं आती हैं:

"रूको दोस्त, सुनो -

यह जो छेद बनी है न

यहाँ तुम इस में यूँ दनदनाते हुए मत घुस जाना

कि हम जो वहाँ के पत्थर हैं

मिट्टी हैं, झरने हैं,

फूल पत्तियां और परिंदे हैं

और पेड़ हम अपनी जगह से उखड़ने न लग जाएं"

किंतु इस कवि को केवल आंचलिक अभव्यक्ति के साथ नत्थी कर देना इनके विस्तृत कविकर्म के साथ अन्याय होगा। इसलिए कवि अजेय को केवल पहाड़ी संवेदनाओं का कवि कहना उचित नहीं होगा। उनके कवित्व का फलक इतना बड़ा है कि वह समूचे विश्व की टीस को कुछ पंक्तियों में समेट लेने का हुनर रखते हैं:

"मेरा गाँव गज़ा पट्टी में सो रहा था

-------------------------

वह आकाश की ओर देखती थी

गाँव की छत पर लेटी एक छोटी बच्ची

दो हरी पत्तियों और एक नन्हे से लाल गुलाब की उम्मीद में जब कि एक बड़ा सा नीला मिज़ाईल

जिस पर बड़ा सा यहूदी सितारा बना है

गाँव के ठीक ऊपर आ कर गिरा है

जहाँ 'इरिगेशन' वालों का टैंक है (यह मेरा ही गाँव है) धमक से उस की पीठ के नीचे काँपती है धरती

(यह मेरी ही पीठ है)"

ये कवितायें अपने अतीत की टोह लेती हैं, वर्तमान की पीड़ाओं को अभिव्यक्त करती हैं और भविष्य की चिंताओं के साथ आपके ज़ेहन में जरूरी सवालात छोड़ जाती हैं:

"वहाँ कम्पनी दफ्तर के बाहर

इकट्ठे हो रहे हैं गांव के लोग

क्या ये विरोध करेगें ?

क्या ये विरोध कर पाएगें?"

तथाकथित विकास के साथ जो छोटी–छोटी चीजें हमारी संस्कृति पर अनायास ही हावी हो रहीं हैं उन्हें सूक्ष्मता से दर्ज करना अजेय बहुत बेहतरी से जानते हैं:

"मुद्दे ही मुद्दे हैं

और एन जी ओ ही एन जी ओ हैं

कल्चर का उत्थान हो रहा है

माँसाहारी देवी देवता वैष्णव हो रहे हैं

बकरों के सिर नारियल हो रहे हैं 

गूर और कारदार

वेद पढ़ रहे हैं संस्कृत हो रहे हैं

बोली का लहजा सपाट हो रहा है"

वैश्वीकरण के बाद मुनाफाखोरों ने जिस तरह विकास का नकाब ओढ़कर संसाधनों की लूट करने की इतनी सारी योजनाएं बनाई हैं, उन्हें समझने के लिए अजेय जी की कवितायें आपके मन में कोई खिड़की भले न खोलें किन्तु इतना सुराख तो कर ही देतीं हैं कि रौशनी की कोई किरण चुपचाप प्रवेश कर सके।

बदलती परिस्थितियों में जहां बेरोजगारी बढ़ी है रोजगार के अवसर कम हुए हैं तो माइग्रेशन भी बढ़ा है। इस समस्या को अलग एंगल से देख रहे हैं अजेय।

"बड़े सस्ते में तीन बिहारी बच्चे ले के लौट रहा हूँ

बाल श्रमिक पुनर्वास केंद्र से

दो को ऑरचर्ड भेज रहा हूँ

एक को घरेलू काम सिखाऊँगा"

उनकी कविताएं छोटी पंक्तियों में बड़े और कठिन सवाल करती हैं। जैसे:

"पान सिगरेट के अड्डों पर पार्टी कार्यालय खुल गए हैं"

"वर्ण व्यवस्था और राष्ट्र में से पहले किस बचाना है समझ नहीं आ रहा है"

अजेय की कविताओं में यदि अंधाधुनिकता की चिंता है तो प्रेम से पगी संवेदनाएं भी हैं जो आपको आपके अतीत में ले जाकर भीतर से गुदगुदा देती हैं।

"सुन लड़की!

चौथी जमात में

मेरे बस्ते से पाँच खूबसूरत कंकरों के साथ

एक गुलाबी रिबन और दो भूरी आँखें गुम हो गईं थीं

कहीं गलती से तेरी जेब में तो नहीं आ गई"

इस संग्रह में कविताओं पर कविता है, कवियों पर कविता है, विमर्शों पर राजनीति पर और विमर्शों की राजनीति पर भी कविताएं हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें आदमी को बचाने की कविता है।

बेहतरीन संकलन के लिए आधार प्रकाशन और अजेय भाई को हार्दिक बधाई।

–अशोक कुमार